Hardasipur
Hardasipur is a village in Jaunpur district, Uttar Pradesh, India.
The village is located 35 km north from Varanasi. The very old and famous Maa Kali Temple is located in this village. This village is under Chandwak Thana Kerakat tehsil. Its postcode is 222129
हरदासीपुर- दक्षिणेश्वरी महाकाली
"कोई दुआ असर नहीं करती, जब तक वो हम पर नजर नहीं करती, हम उसकी खबर रखे न रखे, वो कभी हमें बेखबर नहीं करती।"
कुछ ऐसा ही संबंध है हमारा और हमारी कुल देवी दक्षिण मुखी मां काली का। नवरात्रि का पावन पर्व चल रहा है ऐसे में गांव की तपोभूमि पर स्थापित माँ काली का मंदिर अपने दर्शनाभिलाषी भक्तों से शोभायमान रहता है। वैसे तो वर्ष भर यहाँ भक्तों का मेला लगा रहता है किंतु नवरात्रि पर्व और श्रावण मास कुछ अलग ही छटा बिखेरता है इस दरबार में। बनारस से 30 किलोमीटर दूर उत्तर दिशा में जौनपुर जिला के आदि-गोमती के पावन तट से 2 किलोमीटर की दूरी पर हरदासीपुर में स्थित ये मंदिर लगभग 8 शताब्दियों से इस क्षेत्र(डोभी) की शोभा को गुंजायमान कर हमें सौभाग्य देता है। क्षेत्र की कुल देवी के रूप में स्थापित यह मंदिर अलौकिक मान्यताओं किम्बदन्तियों की कथाओं और भक्तों की मनोकामनाओं का एक स्वरूप है साथ ही साथ माँ न जाने कितने वैवाहिक दंपतियों के कुशल जीवन की साक्षी हैं।
एक नज़र इतिहास पर-:
कुछ किम्बदन्तियों के अनुसार काशी क्षेत्र पर तकरीबन 150 ई.पू. भर(राजभर) समुदाय का राज्य था तत्कालीन समय मे इसे विंध्य क्षेत्र के नाम से जाना जाता था। इस वंश के राजाओं ने बावड़ियों एवम मंदिरों के निर्माण पर विशेष बल दिया; किन्तु मगध साम्राज्य के उदय के पश्चात इसे मगध क्षेत्र के अधीन कर लिया जाता है जो कि हर्षवर्धन के शासन काल में पुनः इनको राज करने का अधिकार प्राप्त होता है और इनका शासन निरंतर चलता रहा। किन्तु लगभग वर्ष 1000 ईसवी में काशीक्षेत्र से सम्बद्ध क्षेत्र(वर्तमान में डोभी, जिला- जौनपुर) में रघुवंशी क्षत्रियों का आगमन हुआ। बनारस के राजा ने अपनी पुत्री का विवाह तत्कालीन अयोध्या के राजा नयनदेव से करने का फैसला किया, जो कि अयोध्या का राजपाठ छोड़ सन्यास धारण कर माँ गंगा के चरणों मे आये और काशी के नियार क्षेत्र में कुटी स्थापित कर तपस्या करने लगें। विवाह के उपरांत भेंट स्वरूप काशीराज ने काशी के कुछ क्षेत्र(वर्तमान में डोभी व कटेहर) की भूमि प्रदान की जिसमे रघुवंशी क्षत्रिय आबाद हुए। उसके बाद वत्यगोत्री, दुर्गवंश, और व्यास क्षत्रिय इस जनपद में आये। तत्कालीन समय मे भी भरों और सोइरसों का प्रभुत्व इस क्षेत्र पर था। क्षत्रियों की आबादी बढ़ने के साथ-साथ भरों और क्षत्रियों में संघर्ष बढ़ने लगा। लगभग वर्ष 1090 के दौरान कन्नौज से गहरवार क्षत्रियों के आगमन के पश्चात ये संघर्ष युद्ध मे तब्दील होने लगा और फलस्वरूप गहरवारों ने विंध्याचल पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर अपने धार्मिक रुचि के अनुरूप मंदिरों के निर्माण एवं विकास पर बल देना आरम्भ किया। तकरीबन 1100 ईसवी के उत्तरार्द्ध में गहरवारों की कृपादृष्टि मंनदेव(वर्तमान में जफराबाद) और योनपुर(वर्तमान में जौनपुर) पर पड़ी और यहाँ भी समृद्धि के साथ धार्मिक क्रियाकलापों का विकास आरम्भ हुआ। डोभी में पहले से रह रहे रघुवंशी एवम अन्य क्षत्रियों के साथ गहरवार क्षत्रियों के संबंध स्थापित हुए, बढ़ती मित्रता और रिश्तेदारी के बीज ने क्षेत्र में विकास के वृक्ष को जन्म दिया। बाह्य आक्रान्ताओं के भय से गहरवारों का मुख्य ध्यान मंदिर और धार्मिक कार्यों के विकास में था जिसके फलस्वरूप रघुवंशी क्षत्रियों की कुल देवी माँ जगदम्बा की एकरूप माँ काली के मंदिर निर्माण की हवा क्षेत्र में फैलने लगी परिणाम स्वरूप गहरवारों के राजा विजय चंद की अगुवानी में मंदिर का निर्माण लगभग 1200 ईसवी में पूर्ण हुआ। उधर कुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा मनदेव यानी वर्तमान का जफराबाद पर आक्रमण कर धार्मिक स्थलों को नष्ट करने का दुष्कृत्य आरम्भ हो चुका था। मुस्लिम आक्रान्ताओं से परेशान होकर गहरवारों ने अपनी राजधानी विजयपुर स्थान्तरित कर ली, फलस्वरूप विंध्य क्षेत्र काशीनरेश के अधीन हो गया। मुस्लिम आक्रान्ताओं की नज़र मंदिर पर थी किन्तु रघुवंशियों का राजा बनारस से संबंध होने के नाते मंदिर को सुरक्षित रखा गया; किन्तु कुछ शताब्दी पश्चात मुस्लिम आक्रान्ता शाहजहाँ द्वारा लगभग 1632 ईसवी में काशी विश्वनाथ मंदिर को पुनः ढहाने के लिए प्रस्ताव पारित किया गया किन्तु सेना में हिंदुओं द्वारा प्रबल प्रतिरोध के कारण मंदिर को नष्ट नही किया जा सका; किन्तु काशी क्षेत्र के 63 प्रमुख मंदिर को ध्वस्त कर दिया गया और मंदिर के पुनः निर्माण पर रोक लगा दी गयी जिसमें से एक मंदिर यह भी था। वर्षों से चली आ रही परम्परा के अनुसार माता के वार्षिक पूजन का समय निकट आ रहा था ऐसे में क्षेत्र वासियों के मन मे भय के साथ रूढ़िवादी प्रश्नों का उठना स्वाभाविक था। पूजा के समय को निकट देखते हुए लोगो ने माँ की प्रतिमा(मिट्टी से निर्मित आकृति) को मंदिर के सामने स्थित बरगद के विशालकाय वृक्ष के नीचे स्थापित कर पूजन करने का निर्णय किया। पूजन के पश्चात लगभग 250 वर्षों तक माता की मूर्ति वृक्ष के नीचे विराजमान रही। लगभग 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में तत्कालीन पुजारी द्वारा पूजन करते समय तांब्रपात्र छूट कर माता के हाथ पर गिरा और मूर्ति का हाथ टूट गया। उसी समय स्थानीय जमींदार और कारोबारी अमरदेव सिंह तीर्थयात्रा पर निकले थे। इधर मूर्ति का हाथ टूटा उधर तीर्थ यात्रा में गए अमरदेव सिंह के हाथ मे दर्द शुरू हो गया। दर्द असहनीय होने के कारण तीर्थयात्रा छोड़ उन्हें रास्ते से घर वापस आना पड़ा। घर वापस आये तो सुना कि माता की प्रतिमा टूट गयी है और उसी समय उनके हाथ का दर्द समाप्त हो गया। स्व. सिंह ने कलकत्ता से माँ काली की नई मूर्ति लाकर एक शिल्पकार पुत्र की भांति माँ के मंदिर निर्माण का कार्य आरम्भ करवाये और शताब्दियों बाद एकबार पुनः दक्षिण मुखी मां काली की स्थापना का कार्य उनके हाथों सम्पन्न हुआ। तकरीबन 100 वर्षो पश्चात वर्ष 2006 में अमरदेव सिंह के सुपौत्र शम्भू नारायण सिंह द्वारा मंदिर की जर्जर अवस्था को देखते हुए एक भव्य मंदिर निर्माण का खाका तैयार किया गया और निर्माण कार्य पुनः आरम्भ हुआ जिसमें विशेष सहयोग उनके भांजे कारोबारी जितेंद्र सिंह(लखनऊ) और गाँव के निवासी कारोबारी शांति देवी पत्नी शिवपूजन सिंह(सिंगापुर), स्व. उदयभान सिंह, रामप्यारे सिंह, का रहा। साथ ही साथ क्षेत्र एवम् गांव के अन्य लोगो जिनमें राजेन्द्र प्रजापति, स्व. सूबेदार सिंह, स्व. हरिनाम,स्व. सियाराम प्रजापति, स्व. रामधनी प्रजापति(सिंगापुर), स्व. सुरेंद्र सिंह, रविन्द्र सिंह, लालबली प्रजापति, स्व. रामराज पांडेय, सुनील पांडेय, आदित्य पांडेय का सामाजिक और शारीरिक सहयोग भी सराहनीय रहा। वर्तमान में मंदिर के प्रमुख संरक्षक(सक्रिय सदस्य) के रूप में वर्तमान पुजारी जयबिन्द पांडेय(डब्बू), शम्भु नारायण सिंह, रामेश्वर प्रसाद सिंह, सुशील सिंह, नरेंद्र सिंह, जितेंद्र सिंह(लखनऊ),निखिल सिंह, विनोद सिंह, इंदु, उमेश सिंह, नवनीत सिंह, नितेश, नवीन, राहुल, प्रदीप, सूरज, महेंद्र प्रजापति, अंकुर सिंह, विशाल, दीपक, रुद्रपति पांडेय,राधेश्याम पांडेय, रविशंकर पांडेय, विजय शंकर पाण्डेय, आकाश, अखिलेश पांडेय, डाक्टर अच्युत पांडेय, गुलाब, रामवृक्ष सिंह, श्रीभान, गिरिजा पांडेय, हरिप्रसाद, धीरज, त्रिपुरारी, राकेश, विपिन, विनय, मनोज एवम् हरदासीपुर कीर्तन मण्डली और समस्त ग्राम एवम् क्षेत्र के सदस्य सम्मिलित हैं।
अंकुर सिंह एवम् निखिल सिंह रघुवंशी
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